रविवार, 22 दिसंबर 2013

लालबत्ती बिन सब सूना !!


         
रविवाणी,जनवाणी में 22/12/2013 को।
नेताजी बहुत सदमे में हैं।जब से न्यायालय के फरमान से उनकी गाड़ी लालबत्ती-विहीन हुई है,उनको लगता है कि विरोधी पार्टी के नेता ने उनकी मूँछें ही उखाड़ दी हैं।बिना लालबत्ती के, गाड़ी ने अपनी चमक और नेताजी ने अपनी धमक खो दी है।अब वे अपने लोगों के पास कौन-सा मुँह लेकर जाएँगे ? लोग भी क्या-क्या सोचेंगे कि जो बन्दा अपनी बत्ती नहीं बचा पाया ,वह उनको क्या रोशनी दिखायेगा ?लालबत्ती वाली गाड़ी नेताजी के समर्थकों में भरपूर जोश पैदा करती थी,वे समझ पाते थे कि उनके नेताजी का रुतबा औरों से अधिक है और अलग भी।अब क्या सत्ता और क्या विपक्ष वाले,क्या जीते और हारे,सभी बराबर हो गए हैं।एक बत्ती ने पहचान का संकट खड़ा कर दिया है।यह लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं है।आखिर लालबत्ती ने किसी का क्या बिगाड़ा था ?

नेताजी को जनता की सेवा करनी होती है,इसके लिए सबसे पहले जनता में उनकी पहचान स्थापित होना ज़रूरी है।यह बात कितनी गलत होगी जब जनता के बीच पहुँचकर,गाड़ी से उतरकर नेताजी को खुद बताना पड़ेगा कि वे ही उनके नेता और सेवक हैं।यह काम गाड़ी में लगी लालबत्ती बिना बोले कर देती थी।बड़ी दूर से आम आदमी सतर्क हो जाता था और अपने चेहरे पर नेताजी के प्रति उमड़ा हुआ श्रद्धाभाव भी इकठ्ठा कर लेता था,पर अब इसके लिए कोई समय ही नहीं मिल पायेगा।जब नेताजी स्वयं आम आदमी के पास जाकर अपने सेवक होने की गुहार लगायेंगे तो उस आदमी के लिए नेताजी के लिए ज़रूरी भाव पैदा करना बड़ा दुष्कर होगा।चलो,आम आदमी को तो इसका देर-सबेर अभ्यास हो भी जायेगा पर नेताजी की कितनी फजीहत होगी,विरोधी मुँह के सामने ही हँसेगे,ऐसा सोचा है किसी ने ?

आम और ख़ास होने में जो अंतर है,उसको लेकर किसी को कोई ऐतराज़ नहीं है तो दिखने में क्यों है ? आम आदमी की पहचान केवल मतदान केंद्र पर ही होती है,जबकि नेताजी की हर गली,बाज़ार और नुक्कड़ पर।इसलिए पहचान की सबसे ज्यादा ज़रूरत नेताजी को ही है।इस काम के लिए अगर उनकी गाड़ी हूटर वाली लालबत्ती के साथ नेताजी की पहचान ज़ाहिर करती है तो गलत क्या है ?लालबत्ती-धारी होने से फायदा यह भी है कि बिना कुछ कहे उनके सारे काम हो जायेंगे।उनके काम से यहाँ मतलब जनता के ही काम से है क्योंकि नेता बनने के बाद जो भी काम होते हैं,सब जनता के ही नाम से जाने जाते हैं।

लालबत्ती किसी निशान का प्रतीक नहीं वरन एक सामाजिक पहचान है।समाज में आम को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं है और न यह चर्चा का विषय है।ख़ास को पहचान की सख्त ज़रूरत है क्योंकि उसी से उसकी कीमत तय होती है।गाड़ी पर लगी लालबत्ती उसे यही पहचान देती है।आम आदमी के घर में बत्ती आये न आये,नेताजी की गाड़ी में लालबत्ती चमकने से जो मानसिक प्रभाव उत्पन्न होगा,आवश्यकता उसी की है।इसी की रोशनी में नेताजी आम आदमी का अँधेरा देख पाएंगे,इसलिए उनसे लालबत्ती छीनना आम आदमी से उसकी पहचान छीनने जैसा है।

'नेशनल दुनिया' में 24/12/2013 को !

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

लालबत्ती है नहीं, मुँह लाल सबके।

संतोष पाण्डेय ने कहा…

न्यायालय ने तो उनकी बत्ती उतारी और आपने कपड़े, वह भी बेहद नफासत से। वाह! मजा आ गया।

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