मंगलवार, 28 जनवरी 2014

चुनावी-मेले में चाय की चुस्कियाँ !


Welcome To National Duniya: Daily Hindi News Paper
नेशनल दुनिया में 28 जनवरी 2014 को !
अगले दो महीने देश के लिए बहुत भारी पड़ने वाले हैं।सभी दिशाओं से लोग निकल पड़े हैं।सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए सबने गुरुमंत्र भी जारी कर दिये हैं।बात सरकार बनाने की या प्रधानमंत्री बनाने की हो रही है,पर इसके ज़रिये हर कोई कुछ न कुछ बेचना चाहता है।फ़िलहाल सरकार चलाने वाले और फिर से बनाने का दावा करने वाले कह रहे है कि उनके लिए प्रधानमंत्री बनाना मुश्किल काम नहीं है।उनका एतराज़ इस पर है कि विपक्ष गंजों को कंघे बेचने का काम कर रहा है,जबकि यह उनका मौलिक अधिकार है।इस सम्बन्ध में उनका तर्क है कि जिसने जनता को गंजा किया है,कंघा भी वही बेच सकता है।इस नाते उनका दावा मज़बूत बैठता है।अब यह जनता पर है कि वह गंजा करने वाले से कंघा लेती है या उससे पंगा लेकर रसोई के सिलेंडर कम करवाना चाहती है ?

चहुँ ओर उत्सव का माहौल है।कुछ लोग देश को सरकार देने के बजाय सीधे प्रधानमंत्री देना चाहते हैं।इसके लिए उन्हें मुद्दे खोजने की भी ज़रूरत नहीं है।वे बस,चाय की चुस्कियाँ लेते हुए देश को प्रधानमंत्री दे देंगे।पूरे देश में आम आदमी की बहार है।ऐसे मौसम में हर घर से एक वोट और एक नोट तो लिया ही जायेगा ,साथ में चाय की केतली भी पकड़ी जाएगी।इससे आम आदमी का सीन क्रिएट होगा और ‘चाय-चाय’ के शोर में कंघे बेचने वाले भूमिगत हो जायेंगे।गंजे हुए लोगों को तेल की मालिश के बजाय चाय की चुस्की सुहाएगी,इसलिए यह बिलकुल मौलिक बदलाव होगा।

देश में इस समय महा-पिकनिक की सी स्थिति है।भ्रष्टाचार और मंहगाई से आजिज जनता कंघे और चाय खरीदने में व्यस्त हो गई है।हर तरफ मेला लगा हुआ है।अपनी-अपनी दुकानों के साथ दुकानदार हाज़िर हो गए हैं।उन सभी को केवल अपनी जनता की चिंता है। इस बार आम आदमी ने भी अपना स्टाल लगाया है।उसका काम सबसे चोखा है।वह ईमानदारी की टोपी लगाकर सड़क पर ही अपनी रेहड़ी लगाकर बैठ गया है।ईमान की कोई कीमत नहीं होती,इसलिए बिना अतिरिक्त लागत के उसे सबसे अधिक फायदा मिलने की उम्मीद है।इस मेले में भारी संख्या में चाय के स्टाल भी लग गए हैं।अगर आप गंजे सर को खुजा-खुजा कर दुखी हो गए हैं,ईमानदारी से पक गए हैं तो चाय की एक बार चुस्की ज़रूर लीजियेगा,ठण्ड के मौसम में बहुत गरम चाय है।बस ,चुस्की लेते जाइये और चुनावों बाद चाय बेचने वालों की दुर्लभ मुस्की का इंतजार कीजिये।

बुधवार, 22 जनवरी 2014

सरकार धरने पर !



जनसन्देश में 22/01/2014 को
देश में यह हो क्या रहा है ? घोर अराजकता की हालत है।यहाँ एक सरकार ही धरने पर बैठ गई है।इसे चलाने वाला अपने को आम आदमी कहता है।पहले तो उसने हमें सत्ता से बेदखल किया,हमारी सरकार बनने से रोकी और अब हमें विपक्ष में भी नहीं बैठने दे रहा है।ऐसा कैसे चलेगा कि वही आदमी सरकार में रहे और वही विपक्ष में ?उसने खुलेआम संविधान का उल्लंघन किया है।सरकारें कभी सड़क पर नहीं चलतीं।उनके लिए बकायदा राजपथ का निर्माण किया गया है।यह आदमी गणतंत्र की रैली को राजपथ से जन-पथ पर लाना चाहता है।क्या देश के विकास की झाँकी वीआईपी दीर्घाओं से देखने के बजाय फुटपाथ पर खड़े होकर निहारी जा सकती है ? सर्दी में ठिठुरते हुए लोग हमारे गणतंत्र के आदर्श नहीं हो सकते।हम ऐसी व्यवस्था के लिए राजनीति में नहीं आये हैं जो खाते-पीते आदमी को सड़क पर ले आये।यह आदमी हमारी रोजी-रोटी पर लात मारने के बाद वातानुकूलित कमरों में हमें चैन से सोने भी नहीं दे रहा।

आम आदमी आखिर क्या चाहता है ? उसकी वजह से हमें अपनी गाड़ियों का काफिला छोटा करना पड़ा।अपनी लालबत्ती-गाड़ी में बैठने में अब डर लगता है।वह हमारे बंगले का साइज़ भी छोटा करने पर आमादा है।बिजली कम्पनियों का मुनाफ़ा घटाना पड़ा और यहाँ तक कि रंग बदलकर टोपी भी लगानी पड़ रही है।अब सर्द रात में खुले आसमान के नीचे सरकार सो रही है,ऐसा कैसे चलेगा ?जब हमें कुर्सी पर बैठकर शासन करने का जनादेश मिला है तो हम सड़क पर क्यूं आयें ? बहुत दिन संघर्ष किया है तब इस मुकाम पर पहुंचे हैं।ऐसी नौटंकी हमें बिलकुल सूट नहीं करती।हम तो मनोरंजन के लिए फ़िल्मी-सितारों को बुलाकर उन्हीं का नाच-गाना देख-सुन सकते हैं।इसके लिए सड़क नहीं,बंद कमरों में गर्मागर्म माहौल होना चाहिए।

वैसे भी धरने पर सरकार कैसे बैठ सकती है ? यह सोचकर ही हमारे हाथ-पाँव फूल रहे हैं।धरने-प्रदर्शन तो विपक्षियों का विशेषाधिकार है,उन्हीं को करने देना चाहिए।धरने तो हम भी करना चाहते हैं,पर इसके लिए आधुनिक सुविधाएँ ज़रूरी हैं।बारिश और सर्दी में धरना देना गणतंत्र के खिलाफ़ है।हमें खुले में कुछ भी करने की आदत नहीं है।इस तरह किसी सरकार का धरने पर बैठना हम नेताओं की छवि को कमजोर कर रहा है।सड़क पर खड़े होने की जगह रेहड़ी-पटरी वालों की है,नेताओं की नहीं।यह राम-राज नहीं ,बल्कि आम-राज है जो कि पूरी तरह से अराजक है।हम राजनीति में राज करने आये हैं न कि सड़क पर अपना तमाशा बनाने।सरकार आलीशान कार्यालयों से चलती है न कि सड़क से।यह सरकार ही नहीं संविधान का भी अपमान है।संविधान ने आम आदमी की सेवा के लिए हमें अधिकार दिया है,यह काम आम आदमी आम तरीके से नहीं कर सकता।आम आदमी को जब सरकार बनाने का काम दिया गया है तो वह सचिवालय में बैठकर सरकार चलाये।सत्ता की कुर्सी तो हमसे छूट ही गई ,हमें कम से कम धरने पर तो बैठने दो !

 

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

माल से बढ़िया मार्केटिंग हो !




नईदुनिया में 16/01/2014 को प्रकाशित


वो बहुत पुरानी दुकान के मालिक हैं।एक लम्बे अरसे से उनकी दुकानदारी बढ़िया चल रही थी,पर मौसम ने कब करवट बदल ली,उन्हें पता ही न चला।दुकान तो अभी भी है,माल भी खूब ठसा हुआ है पर अचानक खरीदार ही गायब हो गए हैं।अपनी दुकान में हो रहे तगड़े घाटे का उनको तब पता चला ,जब सामने सड़क पर एक गुमटी में नई दुकान खुल गई।उसने कम समय में ही बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले।इस बात से चिंतित होकर उन्होंने अपने कारिंदों को बुलाया और  तुरत-फुरत एक बैठक कर डाली।उसी बैठक में उनको कुछ मौलिक तथ्य पता चले,जिनकी वजह से उनकी दुकान को ऐसे दुर्दिन देखने पड़े ।

चिंतन-बैठक में सबसे महत्वपूर्ण बात यह उभरी कि दुकान का कोई दोष नहीं है।उसमें भरा हुआ माल भी बिकने के अनुकूल है।बस कमी यह रही कि दुकान की होर्डिंग के ऊपर कई जगह कालिख गिर गई है,जिससे ग्राहकों को उसमें लिखी इबारत पढ़ने में मुश्किल आ रही है।यही वजह है कि नए ग्राहक भी दुकान की ऐतिहासिकता से वंचित हो रहे हैं।ऐसे में सबसे ज़रूरी यही है कि दुकान की बाहरी दीवारों का ठीक तरीके से रंग-रोगन किया जाय तथा होर्डिंग व दुकान की नामपट्टिका को आकर्षक रंगों से चमका दिया जाय।कई पुराने कारिंदे इस बात पर अभी भी एकमत हैं कि दुकान के अंदर का माल उच्च गुणवत्ता का है,बस यह बात ग्राहकों को समझाने भर की देर है।यानी,जो कमी है,वह मार्केटिंग की है,दुकान या उसके मालिक की नहीं।मार्केटिंग अच्छी होगी तो दिन के उजाले में भी अँधेरे वाला माल खप जायेगा.इसके लिए बेचने वालों को और ट्रेंड किया जाये ताकि वे ग्राहकों की आँखों में कुशलता से कोयला झोंक सकें।

दुकान के मालिक को अपने  कारिंदों पर उतना ही भरोसा है,जितना कारिंदों को अपने मालिक पर।उन्हें माल के बारे में रत्ती भर भी शंका नहीं है।मुश्किल तो यह है कि जिस दुकान से ग्राहकों को वे कई बार चूना लगा चुके हैं, अब उसी दुकान में चूना लगाने की ज़रूरत आ पड़ी है ।इसलिए ज़रूरी है कि दुकान पर लगे जाले साफ़ किये जाँय नहीं तो उसमें ताले लगने की नौबत आ सकती है।उनके लिए चिंता की बात यह भी है कि नई दुकान वाले अपनी साफ-सफाई पर खूब ध्यान दे रहे हैं,दिन में दो-दो बार झाड़ू बुहार रहे हैं।ऐसे में ग्राहकों को अपनी ओर लाने के लिए खुद पर चटख रंग चुपड़ना ज़रूरी हो गया है।

एक अनुभवी कारिंदे ने सलाह दी है कि मालिक की सभी पुरानी ड्रेस बदली की जाँय।इसके लिए यदि अंतरराष्ट्रीय टेंडर की ज़रूरत हो तो वह भी डाला जाय।तब तक मालिक सूट और टाई को कुछ दिन खूँटी पर टाँगकर टोपी और मफलर लपेट सकते हैं। यह इस मौसम से निपटने का बेहतरीन उपाय हो सकता है।फिर,ऐसा मौसम हमेशा थोड़ी रहेगा ? इस तरह माल और मालिक की मार्केटिंग सही तरह से हो सकती है।ऐसे में सभी कारिंदे अब दुकान और मालिक के नए मेक-अप में जुट गए हैं।

 

हम जिम्मेदारी को तैयार हैं !

जनसंदेश और हरिभूमि में 16/01/2014 को।
बचपन से ही मैं जिम्मेदारी उठाने को लेकर तत्पर रहा हूँ,पर कभी इस लायक किसी ने समझा ही नहीं।घर में कोई भी काम मेरी जिम्मेदारी पर नहीं छोड़ा गया।पता नहीं घरवालों को इस बात का इल्हाम  कैसे हुआ कि कोई भी गम्भीर काम मेरे भरोसे नहीं हो सकता।मेरे बारे में उनका यह भरोसा अभी तक बना हुआ है।इस बीच देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी के युवा नेता ने बड़ी जोर से उचारा है कि पार्टी उनको जो भी जिम्मेदारी देगी ,वे निभाने को तैयार हैं,बशर्ते वह जिम्मेदारी देश से सम्बन्धित हो।मेरी बात को मेरे परिजनों ने कभी सुनने की कोशिश नहीं की,पर युवराज की बात उनकी पार्टी के लिए सूत्र-वाक्य है,पहला एजेंडा है।इसलिए पार्टी में इस बात का उत्सव है कि उनके युवराज अब दूध-पीते बच्चे नहीं रहे,जिम्मेदार हो गए हैं।यह और ख़ुशी की बात है कि जिम्मेदारी का यह भाव ठीक चुनावों से पहले आया है।

काम सभी होते हैं,ज़रूरी और गैर ज़रूरी ;पर जब देश सेवा की बात हो,तो यह बड़ी जिम्मेदारी का काम हो जाता है।देश सेवा आज़ादी से पहले भी लोग किया करते थे।तब कोई किसी को जिम्मेदारी नहीं देता था।लोग चुपचाप अपना काम करते थे और ज़रूरत पड़ने पर जिम्मेदारी भी लेते थे।यानी,जिम्मेदारी का भाव तब भी था लेकिन उसे ओढ़ने की औपचारिकता नहीं थी।तब देश सेवा का काम औपचारिकता का नहीं था,इसलिए जिम्मेदारी भी औपचारिक नहीं थी।तब के नेता अपने हर काम को किसी से बताते नहीं थे।इस नाते, आज के नेता अधिक लोकतान्त्रिक हैं।यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे देश सेवा के लिए अपने को प्रस्तुत करें।

देश की जिम्मेदारी लेने के मामले में हमारे यहाँ बहुत बड़ी प्रतियोगिता है।कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है।यहाँ तक कि एक पार्टी में जो आज सबसे बड़े जिम्मेदार बनकर उभरे हैं,उन्होंने अपने ही बुजुर्ग को देश-सेवा की जिम्मेदारी से ज़बरन मुक्त कर दिया है।यह अलग बात है कि वे राजधर्म की अपनी जिम्मेदारी से हमेशा बचते रहे हैं।पर देश-सेवा इस सबसे ऊपर है।उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए यदि किसी नचनिये के साथ पतंग भी उड़ाना पड़े तो कोई उज्र नहीं।जिम्मेदारी का ज़ज्बा होता ही ऐसा है कि राष्ट्रभक्त व्यक्ति देश-सेवा करने के लिए कुलबुला उठता है।यह कुलबुलाहट इतनी तीव्र होती है कि इसके लिए तीसरा,चौथा मोर्चा भी बनाना पड़े तो लोग तैयार बैठे हैं।

कुछ लोगों को ठंडी में भी गर्मी का अहसास होता है।इसकी जिम्मेदारी वे अपने ऊपर नहीं लेते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह जिम्मेदारी जनता की है।जब जनता ने उन्हें एक बार जिम्मेदारी सौंप दी है तो फिर वे कहाँ से जिम्मेदार हुए ? भारी ठण्ड में भी महोत्सव और सैर-सपाटे के लिए समय निकाल लेना कम जिमेदारी का काम है ? जो लोग यह बात नहीं जानते,वे गैर-जिम्मेदार हैं।हमें तो खुश होना चाहिए कि देश-सेवा जैसे नीरस काम की जिम्मेदारी उठाने के लिए लोग चौतरफा तैयार हैं।अब इस काम में ख़ास ही नहीं आम आदमी भी जुट गया है,इसलिए हमें अपने लोकतंत्र के प्रति पूर्ण आश्वस्ति है।भले ही हम कभी कोई जिम्मेदारी न निभा पाए हों,पर अब इन आँखों से जिम्मेदारी को निभते हुए तो देख ही सकते हैं ।

©संतोष त्रिवेदी

बुधवार, 8 जनवरी 2014

आम आदमी होने के खतरे !


‘मैं भी आम आदमी हूँ’,यह कहने में अब डर लगने लगा है।पता नहीं,बाजू वाला कब,क्या समझ बैठे ? ख़ास की कैटेगरी में तो हम कभी थे ही नहीं,अब आम से भी वंचित हो गए।जब से ईमानदार लोगों ने आम आदमी पर अपना दावा किया है,हमें अपने आम आदमी होने पर शक पैदा हो गया है।इतिहास गवाह है कि आम आदमी टाइप ईमानदार को बेईमान भाइयों ने सदा ही गले लगाया है।उन्होंने आम आदमी की सेवा के लिए अपनी सारी प्रतिष्ठा दाँव पर लगा दी।पहले जब हम अपने को आम आदमी कहते या ईमानदार कहते,तो बेईमान भाइयों को काम करने में बड़ी सहूलियत होती थी ।उनकी ‘सेवा’ के हम सबसे सॉफ्ट टारगेट होते थे।इस लिहाज़ से हमें पहली वरीयता मिलती,बदले में हमारे ईमानदार होने पर उनको पूरा ‘सर्विस-चार्ज’मिलता।इस तरह बेईमान और ईमानदार एक साथ,मिल-जुलकर आराम से गुजारा कर रहे थे।यानी ख़ास और आम दोनों सुखी थे।

जब से ईमानदार लोगों ने आम आदमी पर अपना पेटेंट जाहिर किया है,हम तो कहीं के न रहे ।किसी दफ्तर में यह कहने पर कि ‘मैं भी आम आदमी हूँ’,सामने बैठा बाबू भाग खड़ा होता है।उसे लगता है कि मैं ‘वो’ वाला आम आदमी हूँ,जिसने ईमानदारी-ईमानदारी चिल्लाकर ख़ास की नाक में दम कर रखा है।ऐसे में हम उसे ख़ास टाइप के ईमानदार दिखाई देने लगते हैं।हम लाख समझाएं, पर वह हमें अपनी बिरादरी का समझता ही नहीं है।अब यह आम आदमी होना ही दुःख दे रहा है।’मैं भी आम आदमी हूँ’ कहना और भी कई खतरे लेकर आया है।हमारे कई साथी समझते हैं कि देश के मिशन-2014 में मैं ही सबसे बड़ा रोड़ा बनूँगा ।हमें खेल बिगाड़ने वाला और दूसरे के हाथ में खेलने वाला बताया जा रहा है।इन सबको यह नहीं पता कि हम अपना स्वाभाविक खेल ही खेल रहे हैं।इनको अभी भी आम आदमी के खिलाड़ी होने पर संदेह है जबकि हमारे लिए आम आदमी बने रहने में यही सब खतरे हैं।

मजे की बात यह है कि पूरे देश में अब ख़ास नहीं आम होने में रार मची हुई है।कुछ लोगों ने पहले टोपियों में ही लिखा हुआ था कि वे आम आदमी हैं पर इसके लिए अब सदस्यता-अभियान भी चलने वाला है।इसमें व्यक्ति को घोषणा करनी होगी कि वह आम आदमी है ।इस देशव्यापी कार्यक्रम  में जो व्यक्ति शामिल होगा,वही आम आदमी माना जायेगा ।मेरी मुश्किल यह है कि मैं किसी दल में शामिल नहीं हो सकता हूँ ,पर इससे मैं आम आदमी होने से भी वंचित हुआ जा रहा हूँ।मैं ख़ास कभी रहा नहीं और अब आम आदमी भी नहीं रह पा रहा हूँ ।अब सारी चिंता मेरे आदमी बने रहने पर टिक गई है।आम आदमी की पहचान खोने के बाद अपने को आदमी के रूप में बचाने की हमारी जद्दोजहद शुरू हो चुकी है।इसके पहले कि कोई इस पर भी अपना पेटेंट करवाए, मैं यह घोषित करता हूँ कि ‘मैं आदमी हूँ’ और इस पर केवल मेरा ही पेटेंट रहेगा।
8/1/2014 को जनसंदेश में।
नेशनल दुनिया में 15/01/2014 को।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

ठण्ड से कोई नहीं मरता !


हरिभूमि और जनसन्देश में 03/01/2014 को
हमारा देश किसी मामले में आत्मनिर्भर हुआ हो या नहीं पर बयानों के मामले में कम से कम पूर्णतः आत्मनिर्भर हो चुका है।देश में पहले यह काम नेताओं के ही जिम्मे रहा करता था,पर अब उनसे प्रेरणा पाकर अफसरों ने यह ज़िम्मेदारी उठाने की सराहनीय पहल की है।इससे कम होती जा रही नेताई नस्ल और उनकी घास चरती अक्ल से जनता को चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।नेता जी के बयानों का भरपूर लाभ आम आदमी तक पहुँचाने के लिए ह्रदय में संवेदना और आँखों में शर्म का समुद्र भरने की कुछ अफसरों ने प्रतिज्ञा कर ली है।नेता जी को अपने से कहीं ज्यादा चिंता उस आदमी की है,जिसने अपनी उँगली से वोटिंग मशीन को एक बार दबाकर अपनी सारी जिंदगी उनके नाम लिख दी है।अब यह नेता जी का फ़र्ज़ बन जाता है कि ऐसी परजा का वे ध्यान रखें।

नेताजी हालिया हुए दंगों से बहुत आहत हैं।ये दंगे हुए भी थे या किसी विरोधी की साजिश,अभी इस बात की भी जाँच होनी है पर शुरूआती तौर पर उन्होंने सरकारी आंकड़े को मानने की महानता दिखाई है।नेता जी आम आदमी के प्रति बड़े रहमदिल हैं और वो यह कतई नहीं मान सकते कि उनके राज में लोग तम्बुओं और टेन्टों में जीवन गुजारें।इसीलिए जब युवराज उन तम्बुओं को एक पर्यटन-स्थल समझ कर भ्रमण करते हैं तो उनकी जनसेवा का ज्वार हिलोरे मारने लगता है।नेता जी का साफ़ मानना है भीषण ठण्ड में तम्बुओं में रहने वाले पीड़ित नहीं हैं।उनके एक अफसर ने खुलासा किया कि वे सारे लोग भू-माफियाओं की तरह भूखंड कब्जाने के लिए वहां डटे हैं।उनके नवाबी मंत्री ने तो उन सबको युवराज के लिए कूड़ेदान में पड़े वोट भर कह दिया।इससे साफ़ ज़ाहिर हो गया कि वहां मरने-खपने वाली जनता और ठण्ड से मरने वाले बच्चे केवल ज़मीन हथियाने के चक्कर में मारे गए।

नेता जी के एक अफसर ने तो ठण्ड में बच्चों के मरने पर ऐतिहासिक और भौगोलिक शोध का परिचय दिया है।उसने अपनी आँखों में गज़ब की धूर्तता ओढ़ी और सरकार को बेपर्द होने से बचा लिया।उस अफसर ने सबके सामने खुलासा किया कि ठण्ड से कोई नहीं मरता ।अगर ठण्ड से कोई मरता होता तो साइबेरिया में कोई न बचता।उसका ऐसा तर्क सुनकर कई लोग वहीँ ज़मीन पर लोट गए।सुनते हैं कि अफसर के इस रह्स्योद्घाटन के बाद सरकार साइबेरिया जाने के लिए आम आदमी को अनुदान देने पर विचार भी कर रही है।इस बयान के बाद कई अफसरों ने वातानुकूलित गाड़ियों में बैठकर ठण्ड से काँपती राजधानी का रात में निरीक्षण भी किया और यह पाया कि पुलों के नीचे और सड़कों के किनारे लोग बड़े ही आराम से सोये पड़े हैं।यहाँ तक कि उनकी नींद तब भी नहीं टूटी जब किसी साहबजादे की गाड़ी उनमें से कुछ को रौंदकर चली गई।इससे स्पष्ट होता है कि ठण्ड से मरने वाली बात निहायत बेतुकी है।

नेता जी खुश हैं कि उनकी सरकार चल रही है।अफसर खुश हैं कि सरकार उनकी सुन रही है और जनता खुश है कि सरकार उन्हे मरने पर भी अनुदान दे रही है।कम से कम इसी बहाने वह साइबेरिया तो देख लेगी।


 

 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

दो हज़ार चौदह की ठंडक !


01/01/2014 को जनवाणी में
 
नया साल आ गया है।इसको लेकर भारी उत्तेजना है।पिछला पूरा साल खर्च हो गया ,इसकी तैयारी में।कुछ लोगों ने तो पूरा जोर लगा दिया इससे निपटने में,पर कई लोगों को इसने अपने आने के पहले ही पस्त कर दिया।दो हज़ार तेरह में खूब मंसूबे बांधे गए पर दो हज़ार चौदह ने सब पर झाड़ू फेर दिया।साहब और युवराज एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं।राजधानी में पानी की सप्लाई फ्री कर दी गई है।अब डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी की ओर नहीं ताकना है।नए साल ने यह मौका दिया है कि अब सब लोग खूब पानी पी पीकर लड़ाई लड़ें।इससे आँखों में भी पानी की कमी न रहेगी।
वैसे तो दो हज़ार चौदह में दिल्ली का तापमान बहुत गर्म रहने वाला है,पर इसने शुरुआत में ही इसे घोर ठण्ड से जकड लिया है।अब बंधे हाथ और घने कोहरे में जंग कैसे लड़ी जाएगी।मानो नए साल ने चुनौती दी हो कि जीतने भी सूरमा हैं वे पहले ठण्ड से निपटें।कुछ सयाने और अनुभवी लोग पारंपरिक तौर-तरीके नहीं छोड़ पा रहे हैं।उन्हें लगता है कि मफलर बाँधने और सिंहनाद करने से गर्मी नहीं आएगी।वे अपने पुराने फार्मूले पर ही अड़े हुए हैं।इसके लिए वे बुझी हुई कोयले की राख में आलू भूनकर ठंडे पड़े शरीर को गरमाना चाहते हैं।इसलिए दो हज़ार चौदह में शेर और भालू की लड़ाई में आलू भी घुस गया है।

आम आदमी को नए साल से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला।उसने पहले ही अपने सपनों को खूँटी पर टांग रखा था,सो उसको ठण्ड को सहने का अभ्यास हो चुका है।इसीलिए अब वह ठण्ड से मरता भी नहीं है।नया साल भी यह हकीकत जानता है।तभी वह आम आदमी के पास फटकता भी नहीं।पिछले सालों की तरह इस बार भी वह क्लबों और पबों पर आया।आम आदमी रैनबसेरे में दुबका, नए साल को लड़खड़ाते हुये देखता रहा।दो हज़ार चौदह अट्टहास कर रहा है।कुछ लोग उसे जीतने की उम्मीद में रोज़ नई लकड़ी सुलगा रहे हैं पर उसने आते ही सबके अलाव बुझा दिये हैं।अब पुराने सूरमा नई गर्मी की तलाश में जुट गए हैं पर नया साल उन्हें ठंढाने में लगा है।
भले ही पुराने साल में झाड़ू और कूची से भ्रष्टाचार साफ़ हो गया हो पर नया साल और मज़बूत बनकर आया है।उसे जल्द ही कई तरह के तीर-तलवार झेलने होंगे,इसके लिए उसने मोटा लिहाफ़ ओढ़ लिया है।जल्द ही ,हमारे सूरमा इसी लिहाफ़ में सुराख़ करने में कामयाब हो जायेंगे,इसलिए वे ठण्डा-ठंडा फील होने के बाद भी ‘उम्मीदों वाली धूप, सनशाइन वाली आशा’ गुनगुना रहे हैं।

अनुभवी अंतरात्मा का रहस्योद्घाटन

एक बड़े मैदान में बड़ा - सा तंबू तना था।लोग क़तार लगाए खड़े थे।कुछ बड़ा हो रहा है , यह सोचकर हमने तंबू में घुसने की को...