शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

फ़कीरों की कतार में राजाओं की सेंध !

लोग अचानक फ़कीर बनने पर उतारू हो गए हैं।क्या राजा,क्या प्रजा,सब मोह-माया त्याग रहे हैं।सब कुछ छोड़-छाड़कर लोग कतारों में खड़े हैं।खाली जेबें जीवन के प्रति वैराग्य पैदा कर रही हैं।कोहराती शाम में मूँगफली खाने तक की लालसा नहीं रह गई है।जी चाहता है कि धुनी रमाकर जंगल की ओर निकल चलें।खाली पेट और खाली थैले डिजिटल दुआओं से स्वतः लबालब हो जाएँगे।इससे उजाड़ और बियाबान होती बागों में भी बहार आएगी।

प्रजा का फ़क़ीर बनना ज़्यादा बड़ी बात नहीं।वह अकसर  इसके आसपास ही रहती है।बड़े त्याग की बात तब है जब कोई राजा एकदम से फ़क़ीर बन जाए।हमेशा वस्त्रहीन रहने वाली काया का शीत भी कुछ बिगाड़ नहीं सकती।त्याग तो उस राजा का महत्वपूर्ण है जो वातानुकूलित भवन और राजपथ छोड़कर अचानक धुंध भरे जंगल-पथ पर चल दे।

न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री ने अपने परिवार के लिए पद छोड़ दिया।वे राजसी भोग करते हुए अपने निजी जीवन के लिए एक कोना नहीं तलाश पा रहे थे।यह उनकी असफलता है।उन्होंने दुनिया के इस सर्वमान्य नियम को चुनौती दी है कि कुर्सी के आगे रिश्ते-नाते और संवेदनाएँ शिथिल पड़ जाती हैं।ये घटना पूरी तरह दुनियावी-सिद्धांतों के विरुद्ध है।ऐसे समय में जब संत-फकीरों में राजसी-भाव जाग्रत हो रहे हों,राजाओं में फकीरी के कीटाणु आ जाना ठीक नहीं है।

संवेदनाओं और रिश्तों को ज़िन्दा रखने के लिए बाकी दुनिया को हमारे देश के उन नेताओं से प्रेरणा लेनी चाहिए जो देशहित में फकीर बन गए हैं।ये पूरे देश को अपना परिवार मानते हैं इसलिए मौक़ा मिलते ही पूरे परिवार को देश-सेवा की शपथ दिला देते हैं।हमारे नेता ज़िन्दगी की आखिरी साँस तक देश-सेवा में जुटे रहते हैं।लब्बो-लुबाब यह कि राजपद त्यागने की नहीं भोगने की चीज होती है।जनता भी शायद इसीलिए भोगती है।

हमारे यहाँ किसी भी नेता को पदत्याग करने की ज़रूरत नहीं पड़ती।वह अपने पद और शरीर में कोई भेद नहीं करता।पद शरीर के साथ ही जाता है।जनता को भी इस बात का टेंशन नहीं रहता।जो उसे फ़क़ीर बनाता है,बदले में सही समय आने पर उसका एहसान चुका देती है।देश की जनता अपने नेता को उसके परिवार के पास आने के लिए त्यागपत्र देने जैसा पाप-कर्म नहीं करने देती बल्कि अपने जैसा ही फ़कीर बनाकर उसी लम्बी कतार में खड़ा कर देती है।

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